कक्षा 08 इतिहास पाठ 3 राष्ट्रीय भक्ति आंदोलन Notes & Important Question Answer
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Chapter Notes
मध्यकाल में समाज में व्याप्त दुर्बलताओं को दूर करने के लिए भक्ति आंदोलन चला। यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी था। 14वीं से 16वीं शताब्दी तक तो यह आंदोलन अपने चरम पर था। इस आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण भारत में हुआ। वहाँ से यह संपूर्ण भारत में फैल गया। भारत की प्राचीन परम्पराओं व समाज में मुक्ति के तीन मार्ग बताएं हैं ये हैं ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग व भक्ति मार्ग। अनेक संतों ने समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार किया।
इन महापुरुषों में रामानुजाचार्य, नामदेव, जयदेव, चैतन्य महाप्रभु, रामानंद, संत कबीर, मीराबाई व गुरु नानक देव जैसे महापुरुष थे।
भक्ति – ईश्वर के प्रति अनुराग व समर्पण। जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति प्राप्त करने का एक माध्यम जो मध्यकाल में बड़ा लोकप्रिय हुआ।
संत या गुरु – जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति का मार्ग बताने वाले महापुरुष ।
भक्ति मार्ग – भक्ति मार्ग एक प्रक्रिया है जिस पर चलकर साधक या भक्त जन्म-मरण की प्रक्रिया से छुटकारा पा सकता है।
शंकराचार्य - शंकराचार्य ने अद्वैतवाद का प्रचार किया था। अद्वैतवाद में आत्मा व परमात्मा को एक ही माना गया है। संसार को माया बताया गया है व ईश्वर सर्वव्यापक बताया गया है। भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों के मुख्य सिद्धांतों के मूल में आदि गुरु शंकराचार्य की विचारधारा ही थी।
शंकराचार्य भारत के एक महान् दार्शनिक थे जिन्होंने अद्वैत मत का प्रचार किया। उन्होंने उपनिषदों और वेदान्त सूत्रों पर अनेक टीकाएँ लिखीं। उन्होंने भारत में चार मठों को स्थापना की जो बड़े प्रसिद्ध हैं।
1. रामानुजाचार्य : रामानुजाचार्य का जन्म चेन्नई के निकट श्रीपेरमबुदुर नामक स्थान पर 1017 ई. में हुआ था। उनके पिता का नाम केशव तथा माता का नाम कान्तिमती था। वे विष्णु के उपासक थे। अपना सारा जीवन उन्होंने वैष्णव मत के प्रचार में लगा दिया। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर जनसाधारण से लेकर शासकों तक ने वैष्णव मत स्वीकार कर लिया। उन्होंने इस बात का प्रचार किया कि निम्न जातियाँ भी मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। उन्होंने भगवद् गीता पर भाष्य लिखा। उनका कार्यक्षेत्र दक्षिण भारत रहा था।
2. रामानंद : उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन के महान प्रचारक रामानंद थे। उनका जन्म प्रयागराज में हुआ था। वे जाति प्रथा के कटु आलोचक थे। उनके अनुयायी प्राय: सभी जातियों के लोग होते थे। उनके अनुयायियों को ‘अवधूत’ कहा जाता था जिसका अर्थ होता था ‘बंधनों से मुक्त’। वे सच्चे अर्थों में महान सुधारक थे। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर का दर्जा दिया।
3. नामदेव : महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत नामदेव थे। उनका जन्म 1270 ई. में हुआ था। वह व्यवसाय से दर्जी थे। इन्होंने ईश्वर को सर्वशक्तिमान, निराकार व सर्वव्यापक माना। वह ईश्वर को एक मानते थे तथा तीर्थ यात्रा, बलि-प्रथा, मूर्ति पूजा व व्रत-संस्कार को बुराई मानते थे। उन्होंने अपने प्रचार में इनका खंडन किया। अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए इन्होंने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया। इन्होंने मराठी, हिंदी व पंजाबी में अपने उपदेश भजनों के माध्यम से दिए। उनका मानना था कि मुक्ति का एक मात्र साधन ईश्वर भक्ति है।
4. जयदेव तथा चैतन्य महाप्रभु : बंगाल में भक्ति आंदोलन का प्रचार करने वाले प्रमुख संत जयदेव व चैतन्य महाप्रभु थे।जयदेव कृष्ण व राधा के परम भक्त थे। उन्होंने ‘गीत गोविंद’ नामक पुस्तक की रचना की। अपनी इस रचना में उन्होंने राधा व कृष्ण के माध्यम से प्रेम व भक्ति का प्रचार किया। उन्हें बंगाल के शासक लक्ष्मण सेन ने अपने दरबार में ‘रत्न’ के रूप में जगह दी।
चैतन्य महाप्रभु बंगाल की भक्ति परंपरा के एक अनन्य महान संत थे जिनका बचपन का नाम विश्वम्भर था। इनका जन्म 1485 ई. में नादिया नामक स्थान पर हुआ। वे कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उन्होंने कीर्तन प्रथा का प्रतिपादन किया। उनके कीर्तनों में गायन के साथ-साथ संगीत व नृत्य का भी समावेश होता था।
5. कबीर : भक्तिकाल के संतों में सामाजिक बुराइयों पर गहरी चोट करने वाले व सरल व शुद्ध भक्ति के महान प्रचारक संत कबीर थे। कहा जाता है कि नीरु और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने उनका पालन-पोषण किया था। कबीरपंथी परंपरा के अनुसार उनका जन्म 1455 ई. में माघ शुक्ल पूर्णिमा को उत्तर प्रदेश की काशी नामक नगरी में हुआ था। वह बचपन से ही धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे वह रामानंद के शिष्य थे। उन्होंने उत्तरी भारत में जनसाधारण की भाषा में अपने प्रवचन दिए। उनकी रचनाओं को ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संकलित किया गया है। उन्होंने ‘एकेश्वरवाद’ पर बल दिया है। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापक व निर्गुण है। उन्होंने जाति प्रथा छुआछूत व धार्मिक आडंबरों के विरुद्ध आवाज उठाई। उनकी भक्ति सरलता व शुद्धता पर बल देती है। कबीर जी भक्ति में सच्चे गुरु के महत्व पर बल देते हैं। उनके अनुसार सच्चा गुरु ही आत्मा का परमात्मा से मिलन का रास्ता दिखा सकता है। वह आडंबरों के कटु आलोचक थे। उन्होंने तिलक लगाना, व्रत रखना, तीर्थ यात्रा करना आदि धार्मिक आडंबरों की जमकर निंदा की। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया।
6. गुरु नानक देव : पंजाब में 1469 ई. में जन्मे गुरुनानक देव बचपन से ही चिन्तनशील थे। सांसारिक कार्यों में वे कम ही रुचि लेते थे। बड़ा होने पर वे अध्यात्म के मार्ग पर चल पड़े। कहा जाता है कि 35 वर्ष की आयु से ही वे अपने अनुभवों का प्रचार करते हुए स्थान-स्थान पर घूमने लगे। वे ईश्वर के निर्गुण रूप में विश्वास रखते थे। उनका ईश्वर ‘रब्ब’ निराकार था जो संसार का पालक तथा सृजनहार है। वे जाति प्रथा में विश्वास नहीं रखते थे। वे कहा करते थे कि जिस प्रकार तन का मैल पानी से दूर हो जाता है उसी प्रकार मन का मैल भी प्रभु भक्ति से चला जाता है। वे प्रभु नाम सिमरन पर बल देते थे। वे सादा तथा पवित्र जीवन जीने के लिए उपदेश देते थे कबीर की तरह उन्होंने भी गुरु के महत्व पर बल दिया। ‘जपुजी’ व ‘आसा-दी- वार’ नामक रचनाओं में उनकी प्रमुख शिक्षाएं मिलती है।
निर्गुण – निर्गुण भक्ति धारा के संत ईश्वर को निराकार मानते थे।
सगुण – सगुण भक्ति धारा के संत ईश्वर को साकार मानते थे तथा मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे।
दक्षिण भारत में भक्ति: भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत में हुई। ऐसे कई संत थे जो धार्मिक आडंबरों से दूर भगवान शिव और विष्णु को अपना देवता मानते थे।
नयनार – दक्षिण भारत के शैव संत व अनुयायी जो शिव के पुजारी थे। इनकी संख्या 63 थी। संत अप्पार, संत सबन्दर व सुन्दर मूर्ति इनमें प्रमुख थे। ये शिव की भक्ति का प्रचार घूम-घूम कर करते थे। कालांतर में यह सम्प्रदाय अनेक भागों में विभक्त हो गया। कपालिक, वीरशैव, इनमें प्रमुख थे।
अलवार – ये दक्षिण भारत के वैष्णव संत थे। इनकी संख्या 12 थी। तिरुमंगाई, पैरिया अलवार और नाम्मालवार प्रसिद्ध आलवार संत थे। ये विष्णु भक्ति का प्रचार घूम-घूम कर करते थे। कालान्तर में उत्तर भारत यह सम्प्रदाय भिन्न रूप से प्रसिद्ध हुआ। उत्तर भारत में विष्णु के दो रूपों का विभिन्न संतों ने प्रचार किया। कुछ ने रामभक्ति तथा कुछ संतों ने कृष्ण भक्ति का प्रचार किया।
7. मीराबाई : महिला संत मीराबाई गुरु रविदास की शिष्या तथा कृष्ण की अनन्य भक्त थी। उनका जन्म 1498 ई. में हुआ। उनका विवाह राणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ लेकिन विवाह के कुछ समय के बाद ही वे विधवा हो गई। इसके बाद उन्होंने अपना सारा जीवन ईश्वर की भक्ति में बिता दिया। मीरा ‘एकतारा’ नामक वाद्ययंत्र की सहायता से गीत गाकर प्रेम का संदेश देती थी। उनके गीत राजस्थानी भाषा में गाये गये थे। जिनमें आत्मा की परमात्मा से मिलन की यात्रा को दर्शाया गया है। 1547 ई. में उनका देहांत हो गया। भक्तिकाल के संतों में वे एकमात्र महिला संत थी, जिन्होंने सामाजिक बंधनों को भक्ति के लिए तोड़ दिया था।
8. वल्लभाचार्य : उत्तर भारत के भक्ति संतों में वल्लभाचार्य का नाम भी प्रमुख है। वे रामानंद के शिष्य थे। इनका जन्म 1479 ई. में काशी के निकट एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनकी भक्ति का मूल वैराग्य था। ये संसार को माया मानते थे तथा ईश्वर प्राप्ति के लिए सांसारिक सुखों का त्याग अति आवश्यक मानते थे। वह कृष्ण-भक्त थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को प्रत्येक वस्तु कृष्ण को समर्पित करने का उपदेश दिया।
9. धन्ना भगत : राजस्थान के टोंक जिले के धौन कलां नामक गाँव में जन्मे धन्ना भगत एक किसान परिवार से सम्बन्ध रखते थे। उनका जन्म 1415 ई. में हुआ था। उनका परिवार अतिथि सत्कार के लिए बड़ा प्रसिद्ध था। उनके घर आये किसी भी साधु-संत या व्यक्ति को भूखे पेट जाने नहीं दिया जाता था। उनके पिता का नाम रामेश्वर व माता का नाम गंगाबाई था। वह वैष्णव परम्परा के संत थे। धन्ना भगत के कुछ दोहे गुरु ग्रंथ साहिब में भी संकलित हैं। 1475 ई. में उनके मृत्यु हो गई।
10. गुरु रविदास : गुरु रविदास भी भक्ति आंदोलन के महान संत थे। उन्हें रामानंद का शिष्य माना जाता है। उनका जन्म 1450 ई. में वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम रघुराम था। उन्होंने उत्तर भारत के विस्तृत क्षेत्र में भक्ति का प्रचार किया। उनके अनेक पद सिक्ख धर्म की पवित्र पुस्तक ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संकलित किए गए हैं। उन्होंने सदा जाति प्रथा, ऊँच-नीच व धार्मिक आडंबरों का विरोध किया। वे सादगीपूर्ण ईश्वर भक्ति में विश्वास रखते थे।
11. रसखान : रसखान का वास्तविक नाम सैय्यद इब्राहिम था। वह दिल्ली के आस-पास के रहने वाले थे। वे 16वीं-17वीं शताब्दी के भक्त-सन्त थे । वह कृष्ण भक्ति से मुग्ध होकर विट्ठलनाथ से दीक्षा लेकर ब्रजभूमि में जा बसे। ‘सुजान रसखान’ और ‘प्रेम वाटिका’ उनकी प्रमुख कृतियां हैं। उनकी रचनाओं में कृष्ण के प्रति भक्ति-भाव, ब्रज महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है।
केरल के पूनतानं, गुजरात के नरसिंह मेहता तथा असम के शंकरदेव आदि संतों ने अपने भजनों, पदों तथा वाणी में भारतभूमि का वर्णन किया है।
प्रमुख शिक्षाएँ —
मुक्ति पाने का एक सरल व सुगम मार्ग भक्ति था। भक्ति आंदोलन के विभिन्न संतों ने समाज में आई बुराइयों का विरोध किया। मध्यकाल में भक्ति के मुख्यत: दो रूप प्रचलित थे। इन्हें सगुण व निर्गुण मार्ग कहा जाता है। सगुण भक्ति के साकार ईश्वरीय रूप को प्रमुख माना गया है। जबकि निर्गुण भक्ति धारा में ईश्वर की कल्पना निराकार रूप में की गई है। चैतन्य महाप्रभु, रामानंद, मीराबाई इत्यादि संतों का ईश्वर सगुण था। जबकि गुरु नानक देव एवम् संत कबीर का ईश्वर निराकार व सर्वव्यापी था। भक्ति आंदोलन के सभी संत ईश्वर की एकता में विश्वास रखते थे। भक्त संतों की प्रमुख शिक्षाएं निम्नलिखित थी :
सर्व-व्यापक ईश्वर : भक्त संतों का ईश्वर सर्व-शक्तिमान व सर्व व्यापक था। वह सृष्टि के कण-कण में निवास करता था। संतों के अनुसार मनुष्य को अपना सब कुछ अपने इष्ट को अर्पित कर देना चाहिए।
प्रभु भक्ति : भक्त संतों ने प्रभु की भक्ति पर बल दिया। उनका मानना था कि सच्चे मन से प्रभु भक्ति करने पर ईश्वर प्रसन्न होता है। ईश्वर भक्ति ही मनुष्य को मुक्ति दिला सकती है।
गुरु को महत्व : सभी भक्त संतों ने मुक्ति पाने के लिए गुरु के महत्व पर बल दिया है। भक्ति में गुरु का स्थान सबसे ऊँचा व पवित्र होता है। गुरु ही शिष्य को मुक्ति का सही मार्ग दिखाता है। कबीर ने गुरु को साक्षात् ब्रह्म का ही रूप माना है।
भेदभाव का विरोध : मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के संत सच्चे समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों की कटु आलोचना की। सभी संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। मुक्ति का अवसर बिना सामाजिक भेदभाव के सभी को प्रदान करने पर बल दिया।
आडंबरों का विरोध : भक्तिकाल के कई संतों ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया। इनमें संत कबीर, नामदेव व गुरु नानक देव प्रमुख थे। वे मूर्ति-पूजा को आडंबर मानते थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने तंत्र-मंत्र, जादू-टोनों व उपवास रखने व बलि देने का भी विरोध किया।
सरल जीवन : उन्होंने सच्चे मन से मात्र प्रभु भक्ति पर बल दिया तथा सादा जीवन व्यतीत करने पर बल दिया। गुरु नानक देव संसार का त्याग करने के विरोधी थे।
श्रम को महत्व : संत कबीर व रविदास ने सादगीपूर्ण भक्ति का प्रचार करते हुए भी अपने-अपने व्यवसाय को नहीं छोड़ा तथा श्रम के महत्व का संदेश दिया। कबीर ने जीवनभर कपड़ा बुना तथा रविदास ने जीवनभर अपना पुश्तैनी कार्य किया। करतार में रहते हुए गुरु नानक देव भी कृषि कार्य करते थे।
समानता : संतों ने समानता पर बल दिया। संत हिंदू-मुस्लिम एकता के तो समर्थक थे ही, साथ ही वे सामाजिक समानता पर भी बल देते थे।
स्थानीय भाषा : भक्ति आंदोलन के सभी संतों ने जनसाधारण की भाषा में अपने विचारों का प्रचार किया। उनके प्रचार का माध्यम मराठी, ब्रज भाषा, बांग्ला व पंजाबी आदि स्थानीय भाषाएँ व बोलियाँ थीं। उनका दृढ़ विश्वास था कि परमात्मा की भक्ति किसी विशेष भाषा में नहीं की जा सकती। उसके लिए मन में सच्ची श्रद्धा व भावना होनी चाहिए।,
प्रभाव —
भक्ति आंदोलन बहुआयामी था। समाज के प्रत्येक वर्ग पर इसका प्रभाव पड़ा। इसीलिए इसे सामाजिक सुधार आंदोलन भी कहा जाता है। संत कबीर ने हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मों में व्याप्त आडम्बरों की आलोचना की थी। भारत में आध्यात्मिक इस्लाम की प्रमुख धारा सूफी आन्दोलन पर भक्ति आंदोलन व प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का प्रभाव देखने को मिलता है। सूफी आंदोलन की चिश्ती परम्परा में दीक्षा के समय ‘सिर का मुंडन’ प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा से ही प्रभावित माना जाता है। इसी प्रकार मध्यकालीन भारतीय सूफी आंदोलन की ऋषि परम्परा भी मूलत: प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का ही प्रतिनिधित्व करती थी। ऋषि परम्परा मूल रूप से कश्मीर घाटी क्षेत्र में प्रचलित थी। चिश्ती व ऋषि परम्पराओं के अनुयायी योग पद्धति से प्रभावित थे।
सूफी आंदोलन : यह इस्लाम की आध्यात्मिक धारा है जिसका जन्म ईरान में हुआ था। इसकी अनेक शाखाएं या अनेक परम्पराएं थी जिन्हें सिलसिले कहा जाता था । चिश्ती व ऋषि सिलसिला उन्हीं शाखाओं में से थे जिन पर भारतीय अध्यात्मिक पद्धति का प्रभाव था। इस्लाम की इस रहस्यवादी धारा में ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग बताया जाता है।
कुरीतियों पर प्रहार : भक्ति आंदोलन से यहाँ के सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक क्षेत्रों में इसका प्रभाव दिखाई पड़ा। इस आंदोलन में धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करके धर्म को नई दिशा प्रदान की। आंदोलन ने भक्ति द्वारा मुक्ति का मार्ग सभी सामाजिक वर्गों के लिए उपलब्ध करा कर सामाजिक समरसता को बढ़ाया।
धर्म को नई दिशा : भक्ति आंदोलन में धर्म को अध्यात्म से पुन: जोड़कर नई दिशा प्रदान की। संतों ने धार्मिक आडम्बरों की आलोचना कर धर्म के रूप से पुनः अवगत कराया। संतों ने सादगी पूर्ण जीवन जीने पर बल दिया।
सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलना : संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज के सभी वर्गों के लोग ईश्वर भक्ति से ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर सबके लिए विद्यमान है जो उसकी सच्ची लग्न से भक्ति करेगा वही उसे प्राप्त कर लेगा। जात-पात ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है।
भारतीय आध्यात्मिक परम्परा से प्रभावित एक मुगल शहज़ादा –
दारा शिकोह मुगल शासक औरंगज़ेब का बड़ा भाई था। उसके पिता ने उसे अपना उत्तराधिकारी भी चुन लिया था। वह धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक माना जाता था। वह विचारों से उदार था। | इसलिए वह सातवें सिक्ख गुरु हरराय का बड़ा सम्मान करता था। सिक्ख गुरु हरराय भी उन्हें अपना मित्र मानते थे। वह प्राचीन भारतीय धर्म व दर्शन से बड़ा प्रभावित था। उसने अनेक उपनिषदों का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया, ये “सीर-ए-अकबर” नाम से संकलित हैं। इसी अनुवाद के माध्यम से भारतीय उपनिषदों का ज्ञान विदेशों तक पहुंचा। इतना ही नहीं उसने हिन्दू धर्म के वेदान्त व मुस्लिम धर्म में सूफीवादी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन अपनी पुस्तक मज़मा – उल – बेहरीन में किया। उसकी एक अन्य पुस्तक हसनात-उल-आरिफीन में धर्म व वैराग्य का विवेचन मिलता है। लेकिन दुर्भाग्य से शाहजहां के शासन के अन्तिम दिनों में उसके पुत्रों के बीच सिंहासन को लेकर उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में औरंगज़ेब ने दारा शिकोह की हत्या कर दी तथा 1658 ई. में स्वयं मुगल शासक बन गया।
भक्ति आंदोलन के संतों ने साहित्य की रचना की जिसमें जयदेव का ‘गीत गोविंद,’ कबीर का ‘बीजक’ तथा गुरु नानक देव का ‘जपुजी’ प्रमुख रचनाएँ थी।
Question Answer
उत्तर –
नानक पंजाब
Chapter Notes
मध्यकाल में समाज में व्याप्त दुर्बलताओं को दूर करने के लिए भक्ति आंदोलन चला। यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी था। 14वीं से 16वीं शताब्दी तक तो यह आंदोलन अपने चरम पर था। इस आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण भारत में हुआ। वहाँ से यह संपूर्ण भारत में फैल गया। भारत की प्राचीन परम्पराओं व समाज में मुक्ति के तीन मार्ग बताएं हैं ये हैं ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग व भक्ति मार्ग। अनेक संतों ने समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार किया।
इन महापुरुषों में रामानुजाचार्य, नामदेव, जयदेव, चैतन्य महाप्रभु, रामानंद, संत कबीर, मीराबाई व गुरु नानक देव जैसे महापुरुष थे।
भक्ति – ईश्वर के प्रति अनुराग व समर्पण। जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति प्राप्त करने का एक माध्यम जो मध्यकाल में बड़ा लोकप्रिय हुआ।
संत या गुरु – जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति का मार्ग बताने वाले महापुरुष ।
भक्ति मार्ग – भक्ति मार्ग एक प्रक्रिया है जिस पर चलकर साधक या भक्त जन्म-मरण की प्रक्रिया से छुटकारा पा सकता है।
शंकराचार्य - शंकराचार्य ने अद्वैतवाद का प्रचार किया था। अद्वैतवाद में आत्मा व परमात्मा को एक ही माना गया है। संसार को माया बताया गया है व ईश्वर सर्वव्यापक बताया गया है। भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों के मुख्य सिद्धांतों के मूल में आदि गुरु शंकराचार्य की विचारधारा ही थी।
शंकराचार्य भारत के एक महान् दार्शनिक थे जिन्होंने अद्वैत मत का प्रचार किया। उन्होंने उपनिषदों और वेदान्त सूत्रों पर अनेक टीकाएँ लिखीं। उन्होंने भारत में चार मठों को स्थापना की जो बड़े प्रसिद्ध हैं।
- ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ)
- शृंगेरी मठ (रामेश्वरम्)
- शारदा मठ (द्वारिका धाम)
- गोवर्धन मठ (पुरी)
1. रामानुजाचार्य : रामानुजाचार्य का जन्म चेन्नई के निकट श्रीपेरमबुदुर नामक स्थान पर 1017 ई. में हुआ था। उनके पिता का नाम केशव तथा माता का नाम कान्तिमती था। वे विष्णु के उपासक थे। अपना सारा जीवन उन्होंने वैष्णव मत के प्रचार में लगा दिया। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर जनसाधारण से लेकर शासकों तक ने वैष्णव मत स्वीकार कर लिया। उन्होंने इस बात का प्रचार किया कि निम्न जातियाँ भी मोक्ष प्राप्त कर सकती हैं। उन्होंने भगवद् गीता पर भाष्य लिखा। उनका कार्यक्षेत्र दक्षिण भारत रहा था।
2. रामानंद : उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन के महान प्रचारक रामानंद थे। उनका जन्म प्रयागराज में हुआ था। वे जाति प्रथा के कटु आलोचक थे। उनके अनुयायी प्राय: सभी जातियों के लोग होते थे। उनके अनुयायियों को ‘अवधूत’ कहा जाता था जिसका अर्थ होता था ‘बंधनों से मुक्त’। वे सच्चे अर्थों में महान सुधारक थे। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर का दर्जा दिया।
3. नामदेव : महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत नामदेव थे। उनका जन्म 1270 ई. में हुआ था। वह व्यवसाय से दर्जी थे। इन्होंने ईश्वर को सर्वशक्तिमान, निराकार व सर्वव्यापक माना। वह ईश्वर को एक मानते थे तथा तीर्थ यात्रा, बलि-प्रथा, मूर्ति पूजा व व्रत-संस्कार को बुराई मानते थे। उन्होंने अपने प्रचार में इनका खंडन किया। अपने सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए इन्होंने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया। इन्होंने मराठी, हिंदी व पंजाबी में अपने उपदेश भजनों के माध्यम से दिए। उनका मानना था कि मुक्ति का एक मात्र साधन ईश्वर भक्ति है।
4. जयदेव तथा चैतन्य महाप्रभु : बंगाल में भक्ति आंदोलन का प्रचार करने वाले प्रमुख संत जयदेव व चैतन्य महाप्रभु थे।जयदेव कृष्ण व राधा के परम भक्त थे। उन्होंने ‘गीत गोविंद’ नामक पुस्तक की रचना की। अपनी इस रचना में उन्होंने राधा व कृष्ण के माध्यम से प्रेम व भक्ति का प्रचार किया। उन्हें बंगाल के शासक लक्ष्मण सेन ने अपने दरबार में ‘रत्न’ के रूप में जगह दी।
चैतन्य महाप्रभु बंगाल की भक्ति परंपरा के एक अनन्य महान संत थे जिनका बचपन का नाम विश्वम्भर था। इनका जन्म 1485 ई. में नादिया नामक स्थान पर हुआ। वे कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उन्होंने कीर्तन प्रथा का प्रतिपादन किया। उनके कीर्तनों में गायन के साथ-साथ संगीत व नृत्य का भी समावेश होता था।
5. कबीर : भक्तिकाल के संतों में सामाजिक बुराइयों पर गहरी चोट करने वाले व सरल व शुद्ध भक्ति के महान प्रचारक संत कबीर थे। कहा जाता है कि नीरु और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने उनका पालन-पोषण किया था। कबीरपंथी परंपरा के अनुसार उनका जन्म 1455 ई. में माघ शुक्ल पूर्णिमा को उत्तर प्रदेश की काशी नामक नगरी में हुआ था। वह बचपन से ही धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे वह रामानंद के शिष्य थे। उन्होंने उत्तरी भारत में जनसाधारण की भाषा में अपने प्रवचन दिए। उनकी रचनाओं को ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संकलित किया गया है। उन्होंने ‘एकेश्वरवाद’ पर बल दिया है। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापक व निर्गुण है। उन्होंने जाति प्रथा छुआछूत व धार्मिक आडंबरों के विरुद्ध आवाज उठाई। उनकी भक्ति सरलता व शुद्धता पर बल देती है। कबीर जी भक्ति में सच्चे गुरु के महत्व पर बल देते हैं। उनके अनुसार सच्चा गुरु ही आत्मा का परमात्मा से मिलन का रास्ता दिखा सकता है। वह आडंबरों के कटु आलोचक थे। उन्होंने तिलक लगाना, व्रत रखना, तीर्थ यात्रा करना आदि धार्मिक आडंबरों की जमकर निंदा की। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया।
6. गुरु नानक देव : पंजाब में 1469 ई. में जन्मे गुरुनानक देव बचपन से ही चिन्तनशील थे। सांसारिक कार्यों में वे कम ही रुचि लेते थे। बड़ा होने पर वे अध्यात्म के मार्ग पर चल पड़े। कहा जाता है कि 35 वर्ष की आयु से ही वे अपने अनुभवों का प्रचार करते हुए स्थान-स्थान पर घूमने लगे। वे ईश्वर के निर्गुण रूप में विश्वास रखते थे। उनका ईश्वर ‘रब्ब’ निराकार था जो संसार का पालक तथा सृजनहार है। वे जाति प्रथा में विश्वास नहीं रखते थे। वे कहा करते थे कि जिस प्रकार तन का मैल पानी से दूर हो जाता है उसी प्रकार मन का मैल भी प्रभु भक्ति से चला जाता है। वे प्रभु नाम सिमरन पर बल देते थे। वे सादा तथा पवित्र जीवन जीने के लिए उपदेश देते थे कबीर की तरह उन्होंने भी गुरु के महत्व पर बल दिया। ‘जपुजी’ व ‘आसा-दी- वार’ नामक रचनाओं में उनकी प्रमुख शिक्षाएं मिलती है।
निर्गुण – निर्गुण भक्ति धारा के संत ईश्वर को निराकार मानते थे।
सगुण – सगुण भक्ति धारा के संत ईश्वर को साकार मानते थे तथा मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे।
दक्षिण भारत में भक्ति: भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत में हुई। ऐसे कई संत थे जो धार्मिक आडंबरों से दूर भगवान शिव और विष्णु को अपना देवता मानते थे।
नयनार – दक्षिण भारत के शैव संत व अनुयायी जो शिव के पुजारी थे। इनकी संख्या 63 थी। संत अप्पार, संत सबन्दर व सुन्दर मूर्ति इनमें प्रमुख थे। ये शिव की भक्ति का प्रचार घूम-घूम कर करते थे। कालांतर में यह सम्प्रदाय अनेक भागों में विभक्त हो गया। कपालिक, वीरशैव, इनमें प्रमुख थे।
अलवार – ये दक्षिण भारत के वैष्णव संत थे। इनकी संख्या 12 थी। तिरुमंगाई, पैरिया अलवार और नाम्मालवार प्रसिद्ध आलवार संत थे। ये विष्णु भक्ति का प्रचार घूम-घूम कर करते थे। कालान्तर में उत्तर भारत यह सम्प्रदाय भिन्न रूप से प्रसिद्ध हुआ। उत्तर भारत में विष्णु के दो रूपों का विभिन्न संतों ने प्रचार किया। कुछ ने रामभक्ति तथा कुछ संतों ने कृष्ण भक्ति का प्रचार किया।
7. मीराबाई : महिला संत मीराबाई गुरु रविदास की शिष्या तथा कृष्ण की अनन्य भक्त थी। उनका जन्म 1498 ई. में हुआ। उनका विवाह राणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ लेकिन विवाह के कुछ समय के बाद ही वे विधवा हो गई। इसके बाद उन्होंने अपना सारा जीवन ईश्वर की भक्ति में बिता दिया। मीरा ‘एकतारा’ नामक वाद्ययंत्र की सहायता से गीत गाकर प्रेम का संदेश देती थी। उनके गीत राजस्थानी भाषा में गाये गये थे। जिनमें आत्मा की परमात्मा से मिलन की यात्रा को दर्शाया गया है। 1547 ई. में उनका देहांत हो गया। भक्तिकाल के संतों में वे एकमात्र महिला संत थी, जिन्होंने सामाजिक बंधनों को भक्ति के लिए तोड़ दिया था।
8. वल्लभाचार्य : उत्तर भारत के भक्ति संतों में वल्लभाचार्य का नाम भी प्रमुख है। वे रामानंद के शिष्य थे। इनका जन्म 1479 ई. में काशी के निकट एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनकी भक्ति का मूल वैराग्य था। ये संसार को माया मानते थे तथा ईश्वर प्राप्ति के लिए सांसारिक सुखों का त्याग अति आवश्यक मानते थे। वह कृष्ण-भक्त थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को प्रत्येक वस्तु कृष्ण को समर्पित करने का उपदेश दिया।
9. धन्ना भगत : राजस्थान के टोंक जिले के धौन कलां नामक गाँव में जन्मे धन्ना भगत एक किसान परिवार से सम्बन्ध रखते थे। उनका जन्म 1415 ई. में हुआ था। उनका परिवार अतिथि सत्कार के लिए बड़ा प्रसिद्ध था। उनके घर आये किसी भी साधु-संत या व्यक्ति को भूखे पेट जाने नहीं दिया जाता था। उनके पिता का नाम रामेश्वर व माता का नाम गंगाबाई था। वह वैष्णव परम्परा के संत थे। धन्ना भगत के कुछ दोहे गुरु ग्रंथ साहिब में भी संकलित हैं। 1475 ई. में उनके मृत्यु हो गई।
10. गुरु रविदास : गुरु रविदास भी भक्ति आंदोलन के महान संत थे। उन्हें रामानंद का शिष्य माना जाता है। उनका जन्म 1450 ई. में वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम रघुराम था। उन्होंने उत्तर भारत के विस्तृत क्षेत्र में भक्ति का प्रचार किया। उनके अनेक पद सिक्ख धर्म की पवित्र पुस्तक ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संकलित किए गए हैं। उन्होंने सदा जाति प्रथा, ऊँच-नीच व धार्मिक आडंबरों का विरोध किया। वे सादगीपूर्ण ईश्वर भक्ति में विश्वास रखते थे।
11. रसखान : रसखान का वास्तविक नाम सैय्यद इब्राहिम था। वह दिल्ली के आस-पास के रहने वाले थे। वे 16वीं-17वीं शताब्दी के भक्त-सन्त थे । वह कृष्ण भक्ति से मुग्ध होकर विट्ठलनाथ से दीक्षा लेकर ब्रजभूमि में जा बसे। ‘सुजान रसखान’ और ‘प्रेम वाटिका’ उनकी प्रमुख कृतियां हैं। उनकी रचनाओं में कृष्ण के प्रति भक्ति-भाव, ब्रज महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है।
केरल के पूनतानं, गुजरात के नरसिंह मेहता तथा असम के शंकरदेव आदि संतों ने अपने भजनों, पदों तथा वाणी में भारतभूमि का वर्णन किया है।
प्रमुख शिक्षाएँ —
मुक्ति पाने का एक सरल व सुगम मार्ग भक्ति था। भक्ति आंदोलन के विभिन्न संतों ने समाज में आई बुराइयों का विरोध किया। मध्यकाल में भक्ति के मुख्यत: दो रूप प्रचलित थे। इन्हें सगुण व निर्गुण मार्ग कहा जाता है। सगुण भक्ति के साकार ईश्वरीय रूप को प्रमुख माना गया है। जबकि निर्गुण भक्ति धारा में ईश्वर की कल्पना निराकार रूप में की गई है। चैतन्य महाप्रभु, रामानंद, मीराबाई इत्यादि संतों का ईश्वर सगुण था। जबकि गुरु नानक देव एवम् संत कबीर का ईश्वर निराकार व सर्वव्यापी था। भक्ति आंदोलन के सभी संत ईश्वर की एकता में विश्वास रखते थे। भक्त संतों की प्रमुख शिक्षाएं निम्नलिखित थी :
सर्व-व्यापक ईश्वर : भक्त संतों का ईश्वर सर्व-शक्तिमान व सर्व व्यापक था। वह सृष्टि के कण-कण में निवास करता था। संतों के अनुसार मनुष्य को अपना सब कुछ अपने इष्ट को अर्पित कर देना चाहिए।
प्रभु भक्ति : भक्त संतों ने प्रभु की भक्ति पर बल दिया। उनका मानना था कि सच्चे मन से प्रभु भक्ति करने पर ईश्वर प्रसन्न होता है। ईश्वर भक्ति ही मनुष्य को मुक्ति दिला सकती है।
गुरु को महत्व : सभी भक्त संतों ने मुक्ति पाने के लिए गुरु के महत्व पर बल दिया है। भक्ति में गुरु का स्थान सबसे ऊँचा व पवित्र होता है। गुरु ही शिष्य को मुक्ति का सही मार्ग दिखाता है। कबीर ने गुरु को साक्षात् ब्रह्म का ही रूप माना है।
भेदभाव का विरोध : मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के संत सच्चे समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों की कटु आलोचना की। सभी संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। मुक्ति का अवसर बिना सामाजिक भेदभाव के सभी को प्रदान करने पर बल दिया।
आडंबरों का विरोध : भक्तिकाल के कई संतों ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया। इनमें संत कबीर, नामदेव व गुरु नानक देव प्रमुख थे। वे मूर्ति-पूजा को आडंबर मानते थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने तंत्र-मंत्र, जादू-टोनों व उपवास रखने व बलि देने का भी विरोध किया।
सरल जीवन : उन्होंने सच्चे मन से मात्र प्रभु भक्ति पर बल दिया तथा सादा जीवन व्यतीत करने पर बल दिया। गुरु नानक देव संसार का त्याग करने के विरोधी थे।
श्रम को महत्व : संत कबीर व रविदास ने सादगीपूर्ण भक्ति का प्रचार करते हुए भी अपने-अपने व्यवसाय को नहीं छोड़ा तथा श्रम के महत्व का संदेश दिया। कबीर ने जीवनभर कपड़ा बुना तथा रविदास ने जीवनभर अपना पुश्तैनी कार्य किया। करतार में रहते हुए गुरु नानक देव भी कृषि कार्य करते थे।
समानता : संतों ने समानता पर बल दिया। संत हिंदू-मुस्लिम एकता के तो समर्थक थे ही, साथ ही वे सामाजिक समानता पर भी बल देते थे।
स्थानीय भाषा : भक्ति आंदोलन के सभी संतों ने जनसाधारण की भाषा में अपने विचारों का प्रचार किया। उनके प्रचार का माध्यम मराठी, ब्रज भाषा, बांग्ला व पंजाबी आदि स्थानीय भाषाएँ व बोलियाँ थीं। उनका दृढ़ विश्वास था कि परमात्मा की भक्ति किसी विशेष भाषा में नहीं की जा सकती। उसके लिए मन में सच्ची श्रद्धा व भावना होनी चाहिए।,
प्रभाव —
भक्ति आंदोलन बहुआयामी था। समाज के प्रत्येक वर्ग पर इसका प्रभाव पड़ा। इसीलिए इसे सामाजिक सुधार आंदोलन भी कहा जाता है। संत कबीर ने हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मों में व्याप्त आडम्बरों की आलोचना की थी। भारत में आध्यात्मिक इस्लाम की प्रमुख धारा सूफी आन्दोलन पर भक्ति आंदोलन व प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का प्रभाव देखने को मिलता है। सूफी आंदोलन की चिश्ती परम्परा में दीक्षा के समय ‘सिर का मुंडन’ प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा से ही प्रभावित माना जाता है। इसी प्रकार मध्यकालीन भारतीय सूफी आंदोलन की ऋषि परम्परा भी मूलत: प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का ही प्रतिनिधित्व करती थी। ऋषि परम्परा मूल रूप से कश्मीर घाटी क्षेत्र में प्रचलित थी। चिश्ती व ऋषि परम्पराओं के अनुयायी योग पद्धति से प्रभावित थे।
सूफी आंदोलन : यह इस्लाम की आध्यात्मिक धारा है जिसका जन्म ईरान में हुआ था। इसकी अनेक शाखाएं या अनेक परम्पराएं थी जिन्हें सिलसिले कहा जाता था । चिश्ती व ऋषि सिलसिला उन्हीं शाखाओं में से थे जिन पर भारतीय अध्यात्मिक पद्धति का प्रभाव था। इस्लाम की इस रहस्यवादी धारा में ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग बताया जाता है।
कुरीतियों पर प्रहार : भक्ति आंदोलन से यहाँ के सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक क्षेत्रों में इसका प्रभाव दिखाई पड़ा। इस आंदोलन में धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करके धर्म को नई दिशा प्रदान की। आंदोलन ने भक्ति द्वारा मुक्ति का मार्ग सभी सामाजिक वर्गों के लिए उपलब्ध करा कर सामाजिक समरसता को बढ़ाया।
धर्म को नई दिशा : भक्ति आंदोलन में धर्म को अध्यात्म से पुन: जोड़कर नई दिशा प्रदान की। संतों ने धार्मिक आडम्बरों की आलोचना कर धर्म के रूप से पुनः अवगत कराया। संतों ने सादगी पूर्ण जीवन जीने पर बल दिया।
सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलना : संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज के सभी वर्गों के लोग ईश्वर भक्ति से ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर सबके लिए विद्यमान है जो उसकी सच्ची लग्न से भक्ति करेगा वही उसे प्राप्त कर लेगा। जात-पात ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है।
भारतीय आध्यात्मिक परम्परा से प्रभावित एक मुगल शहज़ादा –
दारा शिकोह मुगल शासक औरंगज़ेब का बड़ा भाई था। उसके पिता ने उसे अपना उत्तराधिकारी भी चुन लिया था। वह धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक माना जाता था। वह विचारों से उदार था। | इसलिए वह सातवें सिक्ख गुरु हरराय का बड़ा सम्मान करता था। सिक्ख गुरु हरराय भी उन्हें अपना मित्र मानते थे। वह प्राचीन भारतीय धर्म व दर्शन से बड़ा प्रभावित था। उसने अनेक उपनिषदों का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया, ये “सीर-ए-अकबर” नाम से संकलित हैं। इसी अनुवाद के माध्यम से भारतीय उपनिषदों का ज्ञान विदेशों तक पहुंचा। इतना ही नहीं उसने हिन्दू धर्म के वेदान्त व मुस्लिम धर्म में सूफीवादी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन अपनी पुस्तक मज़मा – उल – बेहरीन में किया। उसकी एक अन्य पुस्तक हसनात-उल-आरिफीन में धर्म व वैराग्य का विवेचन मिलता है। लेकिन दुर्भाग्य से शाहजहां के शासन के अन्तिम दिनों में उसके पुत्रों के बीच सिंहासन को लेकर उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में औरंगज़ेब ने दारा शिकोह की हत्या कर दी तथा 1658 ई. में स्वयं मुगल शासक बन गया।
भक्ति आंदोलन के संतों ने साहित्य की रचना की जिसमें जयदेव का ‘गीत गोविंद,’ कबीर का ‘बीजक’ तथा गुरु नानक देव का ‘जपुजी’ प्रमुख रचनाएँ थी।
Question Answer
- आओ याद करेंवैष्णव संत रामानुजाचार्य का जन्म 1017 ई. में चेन्नई के निकट श्रीपैरमबुदुर नामक स्थान पर हुआ।
- ‘गीत गोविंद’ के रचनाकार जयदेव बंगाल के शासक लक्ष्मण सेन के दरबार में प्रमुख रत्न थे।
- कबीर की रचनाओं का संकलन ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में किया गया है।
- कृष्ण भक्त रसखान का वास्तविक नाम सैय्यद इब्राहिम था।
- दक्षिण भारत में अलवार वैष्णव संत व नयनार शैव संत थे।
- आदि गुरु शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की।
- संत चैतन्य महाप्रभु ने ‘कीर्तन’ की प्रथा को लोकप्रिय बनाया था।
- मुगल राजकुमार दारा शिकोह ने ‘उपनिषदों’ का फारसी भाषा में अनुवाद करवाया था।
रिक्त स्थान भरें :
दक्षिण भारत के वैष्णव संत ______ थे।
संत कबीर _______ भक्तिधारा के संत थे।
धन्ना भगत का परिवार _______ के लिए प्रसिद्ध था।
संत कवि रसखान का वास्तविक नाम ______ था।
बंगाल में भक्ति धारा का प्रचार करने वाले प्रमुख संत _____ थे।
उत्तर – 1. अलवार, 2. एकेश्वरवाद, 3. अतिथि सत्कार, 4. सैय्यद इब्राहिम, 5. जयदेव व चैतन्य महाप्रभु
उचित मिलान करें :
नानक बंगाल
नामदेव पंजाब
धन्ना भगत महाराष्ट्र
चैतन्य उत्तर प्रदेश
कबीर राजस्थान
संत कबीर _______ भक्तिधारा के संत थे।
धन्ना भगत का परिवार _______ के लिए प्रसिद्ध था।
संत कवि रसखान का वास्तविक नाम ______ था।
बंगाल में भक्ति धारा का प्रचार करने वाले प्रमुख संत _____ थे।
उत्तर – 1. अलवार, 2. एकेश्वरवाद, 3. अतिथि सत्कार, 4. सैय्यद इब्राहिम, 5. जयदेव व चैतन्य महाप्रभु
उचित मिलान करें :
नानक बंगाल
नामदेव पंजाब
धन्ना भगत महाराष्ट्र
चैतन्य उत्तर प्रदेश
कबीर राजस्थान
उत्तर –
नानक पंजाब
नामदेव महाराष्ट्र
धन्ना भगत राजस्थान
चैतन्य बंगाल
धन्ना भगत राजस्थान
चैतन्य बंगाल
कबीर उत्तर प्रदेश
आइए विचार करें :
प्रश्न 1. भक्ति आंदोलन किस प्रकार राष्ट्रव्यापी था?
उत्तर – मध्यकाल में समाज में व्याप्त दुर्बलताओं को दूर करने के लिए भक्ति आंदोलन चला। यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी था। 14वीं से 16वीं शताब्दी तक तो यह आंदोलन अपने चरम पर था। इस आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण भारत में हुआ। वहाँ से यह संपूर्ण भारत में फैल गया। अनेक संतों ने समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार किया। इन महापुरुषों में रामानुजाचार्य, नामदेव, जयदेव, चैतन्य महाप्रभु, रामानंद, संत कबीर, मीराबाई व गुरु नानक देव जैसे महापुरुष थे। बहुत सारे संतो के चलते यह भक्ति आंदोलन राष्ट्रव्यापी बन गया।
प्रश्न 2. कबीर तथा गुरु रविदास के जीवन से किस प्रकार श्रम के महत्व का संदेश मिलता है।
उत्तर – संत कबीर व रविदास ने सादगीपूर्ण भक्ति का प्रचार करते हुए भी अपने-अपने व्यवसाय को नहीं छोड़ा तथा श्रम के महत्व का संदेश दिया। कबीर ने जीवनभर कपड़ा बुना तथा रविदास ने जीवनभर अपना पुश्तैनी कार्य किया।
प्रश्न 3. क्या संतों ने समाज के सभी वर्गों के लिए मुक्ति का मार्ग खोल दिया?
उत्तर – हां, संतो ने समाज के सभी वर्गों के लिए मुक्ति का मार्ग खोल दिया था। संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज के सभी वर्गों के लोग ईश्वर भक्ति से ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर सबके लिए विद्यमान है जो उसकी सच्ची लग्न से भक्ति करेगा वही उसे प्राप्त कर लेगा। जात-पात ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है।
प्रश्न 4. सगुण तथा निर्गुण संत परम्परा में मुख्य अंतर क्या था?
उत्तर – निर्गुण भक्ति धारा के संत ईश्वर को निराकार मानते थे और मूर्ति पूजा के विरोधी थे। जबकि सगुण भक्ति धारा के संत ईश्वर को साकार मानते थे तथा मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे।
आओ करके देखें :
प्रश्न 1. क्या संत आज भी धार्मिक आडम्बरों से दूर है? पता लगाएं कि क्या वे आडम्बरों का सहारा लेते हैं?
उत्तर – नहीं, आज के समय में संत धार्मिक आडम्बरों से दूर नहीं है। वे धन के लालच में लोगों को अपने बंधन में फंसा लेते हैं। बहुत सारे लोगों से बुरे काम भी करवाए जाते हैं।
प्रश्न 2. क्या आज के संत भी सामाजिक समानता में विश्वास रखते हैं?
उत्तर – शायद हां, क्योंकि आज के समय में ज्यादातर लोग जिन संतों को अपना गुरु मानते हैं। वे समाज में जातीय भेदभाव को नहीं मानते। आधुनिक समय में सामाजिक समानता समाज में भी बढ़ चुकी है। सभी समाज एक दूसरे की इज्जत करते हैं।
आइए विचार करें :
प्रश्न 1. भक्ति आंदोलन किस प्रकार राष्ट्रव्यापी था?
उत्तर – मध्यकाल में समाज में व्याप्त दुर्बलताओं को दूर करने के लिए भक्ति आंदोलन चला। यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी था। 14वीं से 16वीं शताब्दी तक तो यह आंदोलन अपने चरम पर था। इस आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण भारत में हुआ। वहाँ से यह संपूर्ण भारत में फैल गया। अनेक संतों ने समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार किया। इन महापुरुषों में रामानुजाचार्य, नामदेव, जयदेव, चैतन्य महाप्रभु, रामानंद, संत कबीर, मीराबाई व गुरु नानक देव जैसे महापुरुष थे। बहुत सारे संतो के चलते यह भक्ति आंदोलन राष्ट्रव्यापी बन गया।
प्रश्न 2. कबीर तथा गुरु रविदास के जीवन से किस प्रकार श्रम के महत्व का संदेश मिलता है।
उत्तर – संत कबीर व रविदास ने सादगीपूर्ण भक्ति का प्रचार करते हुए भी अपने-अपने व्यवसाय को नहीं छोड़ा तथा श्रम के महत्व का संदेश दिया। कबीर ने जीवनभर कपड़ा बुना तथा रविदास ने जीवनभर अपना पुश्तैनी कार्य किया।
प्रश्न 3. क्या संतों ने समाज के सभी वर्गों के लिए मुक्ति का मार्ग खोल दिया?
उत्तर – हां, संतो ने समाज के सभी वर्गों के लिए मुक्ति का मार्ग खोल दिया था। संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज के सभी वर्गों के लोग ईश्वर भक्ति से ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर सबके लिए विद्यमान है जो उसकी सच्ची लग्न से भक्ति करेगा वही उसे प्राप्त कर लेगा। जात-पात ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है।
प्रश्न 4. सगुण तथा निर्गुण संत परम्परा में मुख्य अंतर क्या था?
उत्तर – निर्गुण भक्ति धारा के संत ईश्वर को निराकार मानते थे और मूर्ति पूजा के विरोधी थे। जबकि सगुण भक्ति धारा के संत ईश्वर को साकार मानते थे तथा मूर्ति पूजा में विश्वास रखते थे।
आओ करके देखें :
प्रश्न 1. क्या संत आज भी धार्मिक आडम्बरों से दूर है? पता लगाएं कि क्या वे आडम्बरों का सहारा लेते हैं?
उत्तर – नहीं, आज के समय में संत धार्मिक आडम्बरों से दूर नहीं है। वे धन के लालच में लोगों को अपने बंधन में फंसा लेते हैं। बहुत सारे लोगों से बुरे काम भी करवाए जाते हैं।
प्रश्न 2. क्या आज के संत भी सामाजिक समानता में विश्वास रखते हैं?
उत्तर – शायद हां, क्योंकि आज के समय में ज्यादातर लोग जिन संतों को अपना गुरु मानते हैं। वे समाज में जातीय भेदभाव को नहीं मानते। आधुनिक समय में सामाजिक समानता समाज में भी बढ़ चुकी है। सभी समाज एक दूसरे की इज्जत करते हैं।
Important Question Answer
प्रश्न 1. भक्तिकाल में संत कबीर के जीवन का वर्णन कीजिए।
उत्तर – भक्तिकाल के संतों में सामाजिक बुराइयों पर गहरी चोट करने वाले व सरल व शुद्ध भक्ति के महान प्रचारक संत कबीर थे। कहा जाता है कि नीरु और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने उनका पालन-पोषण किया था। कबीरपंथी परंपरा के अनुसार उनका जन्म 1455 ई. में माघ शुक्ल पूर्णिमा को उत्तर प्रदेश की काशी नामक नगरी में हुआ था। वह बचपन से ही धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे वह रामानंद के शिष्य थे। उन्होंने उत्तरी भारत में जनसाधारण की भाषा में अपने प्रवचन दिए। उनकी रचनाओं को ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संकलित किया गया है। उन्होंने ‘एकेश्वरवाद’ पर बल दिया है। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापक व निर्गुण है। उन्होंने जाति प्रथा छुआछूत व धार्मिक आडंबरों के विरुद्ध आवाज उठाई। उनकी भक्ति सरलता व शुद्धता पर बल देती है। कबीर जी भक्ति में सच्चे गुरु के महत्व पर बल देते हैं। उनके अनुसार सच्चा गुरु ही आत्मा का परमात्मा से मिलन का रास्ता दिखा सकता है। वह आडंबरों के कटु आलोचक थे। उन्होंने तिलक लगाना, व्रत रखना, तीर्थ यात्रा करना आदि धार्मिक आडंबरों की जमकर निंदा की। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया।
प्रश्न 2. नयनार कौन थे?
उत्तर – दक्षिण भारत के शैव संत व अनुयायी जो शिव के पुजारी थे, नयनार कहलाते थे। इनकी संख्या 63 थी। संत अप्पार, संत सबन्दर व सुन्दर मूर्ति इनमें प्रमुख थे। ये शिव की भक्ति का प्रचार घूम-घूम कर करते थे। कालांतर में यह सम्प्रदाय अनेक भागों में विभक्त हो गया। कपालिक, वीरशैव, इनमें प्रमुख थे।
प्रश्न 3. अलवार कौन थे?
उत्तर – अलवार दक्षिण भारत के वैष्णव संत थे। इनकी संख्या 12 थी। तिरुमंगाई, पैरिया अलवार और नाम्मालवार प्रसिद्ध आलवार संत थे। ये विष्णु भक्ति का प्रचार घूम-घूम कर करते थे। कालान्तर में उत्तर भारत यह सम्प्रदाय भिन्न रूप से प्रसिद्ध हुआ। उत्तर भारत में विष्णु के दो रूपों का विभिन्न संतों ने प्रचार किया। कुछ ने रामभक्ति तथा कुछ संतों ने कृष्ण भक्ति का प्रचार किया।
प्रश्न 7. भक्ति काल में संतों की प्रमुख शिक्षाएं क्या-क्या थी? वर्णन कीजिए।
उत्तर – मुक्ति पाने का एक सरल व सुगम मार्ग भक्ति था। भक्ति आंदोलन के विभिन्न संतों ने समाज में आई बुराइयों का विरोध किया। भक्त संतों की प्रमुख शिक्षाएं निम्नलिखित थी :
प्रश्न 1. भक्तिकाल में संत कबीर के जीवन का वर्णन कीजिए।
उत्तर – भक्तिकाल के संतों में सामाजिक बुराइयों पर गहरी चोट करने वाले व सरल व शुद्ध भक्ति के महान प्रचारक संत कबीर थे। कहा जाता है कि नीरु और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने उनका पालन-पोषण किया था। कबीरपंथी परंपरा के अनुसार उनका जन्म 1455 ई. में माघ शुक्ल पूर्णिमा को उत्तर प्रदेश की काशी नामक नगरी में हुआ था। वह बचपन से ही धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे वह रामानंद के शिष्य थे। उन्होंने उत्तरी भारत में जनसाधारण की भाषा में अपने प्रवचन दिए। उनकी रचनाओं को ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में संकलित किया गया है। उन्होंने ‘एकेश्वरवाद’ पर बल दिया है। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापक व निर्गुण है। उन्होंने जाति प्रथा छुआछूत व धार्मिक आडंबरों के विरुद्ध आवाज उठाई। उनकी भक्ति सरलता व शुद्धता पर बल देती है। कबीर जी भक्ति में सच्चे गुरु के महत्व पर बल देते हैं। उनके अनुसार सच्चा गुरु ही आत्मा का परमात्मा से मिलन का रास्ता दिखा सकता है। वह आडंबरों के कटु आलोचक थे। उन्होंने तिलक लगाना, व्रत रखना, तीर्थ यात्रा करना आदि धार्मिक आडंबरों की जमकर निंदा की। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया।
प्रश्न 2. नयनार कौन थे?
उत्तर – दक्षिण भारत के शैव संत व अनुयायी जो शिव के पुजारी थे, नयनार कहलाते थे। इनकी संख्या 63 थी। संत अप्पार, संत सबन्दर व सुन्दर मूर्ति इनमें प्रमुख थे। ये शिव की भक्ति का प्रचार घूम-घूम कर करते थे। कालांतर में यह सम्प्रदाय अनेक भागों में विभक्त हो गया। कपालिक, वीरशैव, इनमें प्रमुख थे।
प्रश्न 3. अलवार कौन थे?
उत्तर – अलवार दक्षिण भारत के वैष्णव संत थे। इनकी संख्या 12 थी। तिरुमंगाई, पैरिया अलवार और नाम्मालवार प्रसिद्ध आलवार संत थे। ये विष्णु भक्ति का प्रचार घूम-घूम कर करते थे। कालान्तर में उत्तर भारत यह सम्प्रदाय भिन्न रूप से प्रसिद्ध हुआ। उत्तर भारत में विष्णु के दो रूपों का विभिन्न संतों ने प्रचार किया। कुछ ने रामभक्ति तथा कुछ संतों ने कृष्ण भक्ति का प्रचार किया।
प्रश्न 7. भक्ति काल में संतों की प्रमुख शिक्षाएं क्या-क्या थी? वर्णन कीजिए।
उत्तर – मुक्ति पाने का एक सरल व सुगम मार्ग भक्ति था। भक्ति आंदोलन के विभिन्न संतों ने समाज में आई बुराइयों का विरोध किया। भक्त संतों की प्रमुख शिक्षाएं निम्नलिखित थी :
सर्व-व्यापक ईश्वर : भक्त संतों का ईश्वर सर्व-शक्तिमान व सर्व व्यापक था। वह सृष्टि के कण-कण में निवास करता था। संतों के अनुसार मनुष्य को अपना सब कुछ अपने इष्ट को अर्पित कर देना चाहिए।
प्रभु भक्ति : भक्त संतों ने प्रभु की भक्ति पर बल दिया। उनका मानना था कि सच्चे मन से प्रभु भक्ति करने पर ईश्वर प्रसन्न होता है। ईश्वर भक्ति ही मनुष्य को मुक्ति दिला सकती है।
गुरु को महत्व : सभी भक्त संतों ने मुक्ति पाने के लिए गुरु के महत्व पर बल दिया है। भक्ति में गुरु का स्थान सबसे ऊँचा व पवित्र होता है। गुरु ही शिष्य को मुक्ति का सही मार्ग दिखाता है। कबीर ने गुरु को साक्षात् ब्रह्म का ही रूप माना है।
भेदभाव का विरोध : मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के संत सच्चे समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों की कटु आलोचना की। सभी संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। मुक्ति का अवसर बिना सामाजिक भेदभाव के सभी को प्रदान करने पर बल दिया।
आडंबरों का विरोध : भक्तिकाल के कई संतों ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया। इनमें संत कबीर, नामदेव व गुरु नानक देव प्रमुख थे। वे मूर्ति-पूजा को आडंबर मानते थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने तंत्र-मंत्र, जादू-टोनों व उपवास रखने व बलि देने का भी विरोध किया।
सरल जीवन : उन्होंने सच्चे मन से मात्र प्रभु भक्ति पर बल दिया तथा सादा जीवन व्यतीत करने पर बल दिया। गुरु नानक देव संसार का त्याग करने के विरोधी थे।
श्रम को महत्व : संत कबीर व रविदास ने सादगीपूर्ण भक्ति का प्रचार करते हुए भी अपने-अपने व्यवसाय को नहीं छोड़ा तथा श्रम के महत्व का संदेश दिया। कबीर ने जीवनभर कपड़ा बुना तथा रविदास ने जीवनभर अपना पुश्तैनी कार्य किया। करतार में रहते हुए गुरु नानक देव भी कृषि कार्य करते थे।
समानता : संतों ने समानता पर बल दिया। संत हिंदू-मुस्लिम एकता के तो समर्थक थे ही, साथ ही वे सामाजिक समानता पर भी बल देते थे।
प्रश्न 8. भक्ति आंदोलन का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर – भक्ति आंदोलन बहुआयामी था। समाज के प्रत्येक वर्ग पर इसका प्रभाव पड़ा। इसीलिए इसे सामाजिक सुधार आंदोलन भी कहा जाता है।
प्रभु भक्ति : भक्त संतों ने प्रभु की भक्ति पर बल दिया। उनका मानना था कि सच्चे मन से प्रभु भक्ति करने पर ईश्वर प्रसन्न होता है। ईश्वर भक्ति ही मनुष्य को मुक्ति दिला सकती है।
गुरु को महत्व : सभी भक्त संतों ने मुक्ति पाने के लिए गुरु के महत्व पर बल दिया है। भक्ति में गुरु का स्थान सबसे ऊँचा व पवित्र होता है। गुरु ही शिष्य को मुक्ति का सही मार्ग दिखाता है। कबीर ने गुरु को साक्षात् ब्रह्म का ही रूप माना है।
भेदभाव का विरोध : मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के संत सच्चे समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों की कटु आलोचना की। सभी संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। मुक्ति का अवसर बिना सामाजिक भेदभाव के सभी को प्रदान करने पर बल दिया।
आडंबरों का विरोध : भक्तिकाल के कई संतों ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया। इनमें संत कबीर, नामदेव व गुरु नानक देव प्रमुख थे। वे मूर्ति-पूजा को आडंबर मानते थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने तंत्र-मंत्र, जादू-टोनों व उपवास रखने व बलि देने का भी विरोध किया।
सरल जीवन : उन्होंने सच्चे मन से मात्र प्रभु भक्ति पर बल दिया तथा सादा जीवन व्यतीत करने पर बल दिया। गुरु नानक देव संसार का त्याग करने के विरोधी थे।
श्रम को महत्व : संत कबीर व रविदास ने सादगीपूर्ण भक्ति का प्रचार करते हुए भी अपने-अपने व्यवसाय को नहीं छोड़ा तथा श्रम के महत्व का संदेश दिया। कबीर ने जीवनभर कपड़ा बुना तथा रविदास ने जीवनभर अपना पुश्तैनी कार्य किया। करतार में रहते हुए गुरु नानक देव भी कृषि कार्य करते थे।
समानता : संतों ने समानता पर बल दिया। संत हिंदू-मुस्लिम एकता के तो समर्थक थे ही, साथ ही वे सामाजिक समानता पर भी बल देते थे।
प्रश्न 8. भक्ति आंदोलन का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर – भक्ति आंदोलन बहुआयामी था। समाज के प्रत्येक वर्ग पर इसका प्रभाव पड़ा। इसीलिए इसे सामाजिक सुधार आंदोलन भी कहा जाता है।
कुरीतियों पर प्रहार : भक्ति आंदोलन से यहाँ के सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक क्षेत्रों में इसका प्रभाव दिखाई पड़ा। इस आंदोलन में धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करके धर्म को नई दिशा प्रदान की। आंदोलन ने भक्ति द्वारा मुक्ति का मार्ग सभी सामाजिक वर्गों के लिए उपलब्ध करा कर सामाजिक समरसता को बढ़ाया।
धर्म को नई दिशा : भक्ति आंदोलन में धर्म को अध्यात्म से पुन: जोड़कर नई दिशा प्रदान की। संतों ने धार्मिक आडम्बरों की आलोचना कर धर्म के रूप से पुनः अवगत कराया। संतों ने सादगी पूर्ण जीवन जीने पर बल दिया।
सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलना : संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज के सभी वर्गों के लोग ईश्वर भक्ति से ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर सबके लिए विद्यमान है जो उसकी सच्ची लग्न से भक्ति करेगा वही उसे प्राप्त कर लेगा। जात-पात ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है।
धर्म को नई दिशा : भक्ति आंदोलन में धर्म को अध्यात्म से पुन: जोड़कर नई दिशा प्रदान की। संतों ने धार्मिक आडम्बरों की आलोचना कर धर्म के रूप से पुनः अवगत कराया। संतों ने सादगी पूर्ण जीवन जीने पर बल दिया।
सभी के लिए मुक्ति का मार्ग खोलना : संतों ने जाति प्रथा का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज के सभी वर्गों के लोग ईश्वर भक्ति से ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर सबके लिए विद्यमान है जो उसकी सच्ची लग्न से भक्ति करेगा वही उसे प्राप्त कर लेगा। जात-पात ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है।
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